अष्टावक्र महागीता # 2 , 6
झेन गुरु अपने शिष्यों को कहते हैं? बस बैठो और कुछ न करो। इससे क्रांतिकारी सूत्र कभी दिया ही नहीं गया। वे कहते हैं, बस बैठो कुछ न करो। शिष्य बार—बार आता है कि कुछ करने को दे दो। सदगुरु कहता है : कुछ करने को दे दिया, बस शुरू हुआ गोरखधंधा!
'गोरखधंधा' शब्द बड़ा अदभुत शब्द है। यह गोरखनाथ से चला। क्योंकि जितनी विधियां गोरखनाथ ने खोजी, मेरे अलावा किसी और ने नहीं खोजी। गोरखधंधा! मानते नहीं, कुछ करेंगे. करो! कुंडलिनी करो, नादब्रह्म करो! करने के बिना चैन नहीं है! तुम कहते हो, बिना कुछ किए तो हम बैठ ही नहीं सकते। तो मैं कहता हूं चलो ठीक है, कुछ करो! जब थक जाओगे करने से, किसी दिन जब कहोगे कि अब कुछ ऐसा बताएं कि करने से बहुत हो गया, अब करने से कुछ होता नहीं, तो तुमसे कहूंगा, अब बैठ रहो!
जैसे छोटा बच्चा घर में होता है—बेचैन—तुम उसे कहते हो, शांत बैठ! वह शांत क्या, कैसे बैठे? इतना बूढ़ा नहीं है कि शांत बैठे। अभी ऊर्जा से भरा है, अभी उबल रही है आग! अभी वह शांत भी बैठे तो कसमसाता है, हिलता—डुलता है। वह रात में सो भी नहीं सकता, बिस्तर से नीचे गिर जाता है। तो करवटें बदलता है, हाथ—पैर फेंकता है। अभी तो शक्ति उठ रही है। तुम उसे कहते हो, 'शांत बैठ! आंख बंद कर!' वह बैठ नहीं सकता। उसके लिए तो एक ही उपाय है। उससे कहो कि जा घर के पंद्रह चक्कर लगा आ, जोर से दौड़ना। फिर कुछ कहने की जरूरत न रहेगी। वे पंद्रह चक्कर लगा कर खुद ही शांति से आ कर बैठ जाएंगे। तब तुम देखना उनकी शांति में फर्क है। ऊर्जा बह गई है, थकान आ गई है—उस थकान में बैठना आसान हो जाता है।
सारी विधियां गोरखधंधे हैं। उनका उपयोग केवल एक है कि तुम थक जाओ; तुम्हारे कर्ता में धीरे— धीरे थकान आ जाए। तुम यह सोचने लगो, कर—कर के तो कुछ 'हुआ नहीं, अब जरा न करके देख लें! तुम करने से ऐसे परेशान हो जाओ कि एक दिन तुम कहने लगो, अब तो प्रभु करने से छुडाओ। अब तो यह करना बड़ा जान लिए ले रहा है। अब तो हम शांत होना चाहते हैं, बैठना चाहते हैं!
जब तुम्हीं शांत बैठना चाहोगे, तभी शांत बैठ सकोगे।
जब तक शिष्य कर्ता में अभी रस ले रहा है किसी तरह का, तब तक उसे कुछ न कुछ कर्म देना पड़ेगा, कोई प्रक्रिया देनी पड़ेगी। लेकिन झेन फकीर आखिरी बात कहते हैं। वे कहते हैं, बैठ जाओ, कुछ करो मत! बड़ा कठिन होता है बैठ जाना और कुछ न करना।
तुमने कभी खयाल किया, घर में कुछ करने को न हो तो कैसी मुसीबत आ जाती है! फर्नीचर ही जमाने लगते हैं लोग; अभी कल ही जमाया था, फिर से जमाने लगते हैं। झाडू—पोंछ करने लगते हैं। कल ही की थी, फिर से करने लगते हैं। अखबार पुराना पड़ा है, उसी को पढ़ने लगते हैं; उसे पढ़
चुके हैं पहले ही। तुमने कभी खयाल किया? कुछ न कुछ करने लगते हैं! कुछ न हो तो कुछ खाने—पीने लगेंगे।
मैं यात्रा करता था वर्षों तक, तो मेरे साथ एक मित्र कभी—कभी यात्रा पर जाते थे। तो वे मुझसे बोले कि बड़ी अजीब बात है, घर ऐसी भूख नहीं लगती। ट्रेन में मेरे साथ कभी उनको तीस घंटे बैठना पड़ता। घर ऐसी भूख नहीं लगती, क्या मामला है? और घर तो काम में लगे रहते हैं और भूख नहीं लगती, और ट्रेन में तो सिर्फ बैठे हुए हैं। ट्रेन में अनेक लोगों को भूख लगती है। और अगर घर से कुछ कलेवा ले कर चले हैं फिर तो बड़ी बेचैनी हो जाती है। फिर तो कब खोलें..!
तो मैंने उनसे कहा कि इसका कारण. कारण कुल इतना है कि तुम खाली नहीं बैठ सकते। अब यह एक झाझेन हो गया, एक किया हो गई झेन की, कि बैठे ट्रेन में तीस घंटे तक, अब कुछ काम भी नहीं है। बाहर भी कब तक देखो, आंखें थक जाती हैं। अखबार भी कब तक पढ़ो, थोड़ी देर में चुक जाता है। तो कुछ खाओ, फिर से बिस्तर जमाओ, फिर से सूटकेस खोल कर देखो; जैसे कि किसी और का है! तुम्हीं जमा कर आए हो घर से। उसको व्यवस्थित कर लो!
मैंने देखा कि.. मैं देखता रहता कि क्या रहे हैं वे। फिर चले बाथरूम! क्यों? अभी तुम गये थे! न मालूम क्या मामला है? खिड़की खोलते, बंद करते!
आदमी को कुछ उलझन चाहिए। उलझा रहे, व्यस्त रहे तो ठीक मालूम पड़ता है। उलझा रहे, व्यस्त रहे तो पुरानी आदत के अनुकूल सब चलता रहता है। खाली छूट जाए, शून्य पकड़ने लगता है। वही शून्य ध्यान है। खाली छूट जाए, मोक्ष उतरने लगता है।
🌹🙏🌹ओशो ,
'गोरखधंधा' शब्द बड़ा अदभुत शब्द है। यह गोरखनाथ से चला। क्योंकि जितनी विधियां गोरखनाथ ने खोजी, मेरे अलावा किसी और ने नहीं खोजी। गोरखधंधा! मानते नहीं, कुछ करेंगे. करो! कुंडलिनी करो, नादब्रह्म करो! करने के बिना चैन नहीं है! तुम कहते हो, बिना कुछ किए तो हम बैठ ही नहीं सकते। तो मैं कहता हूं चलो ठीक है, कुछ करो! जब थक जाओगे करने से, किसी दिन जब कहोगे कि अब कुछ ऐसा बताएं कि करने से बहुत हो गया, अब करने से कुछ होता नहीं, तो तुमसे कहूंगा, अब बैठ रहो!
जैसे छोटा बच्चा घर में होता है—बेचैन—तुम उसे कहते हो, शांत बैठ! वह शांत क्या, कैसे बैठे? इतना बूढ़ा नहीं है कि शांत बैठे। अभी ऊर्जा से भरा है, अभी उबल रही है आग! अभी वह शांत भी बैठे तो कसमसाता है, हिलता—डुलता है। वह रात में सो भी नहीं सकता, बिस्तर से नीचे गिर जाता है। तो करवटें बदलता है, हाथ—पैर फेंकता है। अभी तो शक्ति उठ रही है। तुम उसे कहते हो, 'शांत बैठ! आंख बंद कर!' वह बैठ नहीं सकता। उसके लिए तो एक ही उपाय है। उससे कहो कि जा घर के पंद्रह चक्कर लगा आ, जोर से दौड़ना। फिर कुछ कहने की जरूरत न रहेगी। वे पंद्रह चक्कर लगा कर खुद ही शांति से आ कर बैठ जाएंगे। तब तुम देखना उनकी शांति में फर्क है। ऊर्जा बह गई है, थकान आ गई है—उस थकान में बैठना आसान हो जाता है।
सारी विधियां गोरखधंधे हैं। उनका उपयोग केवल एक है कि तुम थक जाओ; तुम्हारे कर्ता में धीरे— धीरे थकान आ जाए। तुम यह सोचने लगो, कर—कर के तो कुछ 'हुआ नहीं, अब जरा न करके देख लें! तुम करने से ऐसे परेशान हो जाओ कि एक दिन तुम कहने लगो, अब तो प्रभु करने से छुडाओ। अब तो यह करना बड़ा जान लिए ले रहा है। अब तो हम शांत होना चाहते हैं, बैठना चाहते हैं!
जब तुम्हीं शांत बैठना चाहोगे, तभी शांत बैठ सकोगे।
जब तक शिष्य कर्ता में अभी रस ले रहा है किसी तरह का, तब तक उसे कुछ न कुछ कर्म देना पड़ेगा, कोई प्रक्रिया देनी पड़ेगी। लेकिन झेन फकीर आखिरी बात कहते हैं। वे कहते हैं, बैठ जाओ, कुछ करो मत! बड़ा कठिन होता है बैठ जाना और कुछ न करना।
तुमने कभी खयाल किया, घर में कुछ करने को न हो तो कैसी मुसीबत आ जाती है! फर्नीचर ही जमाने लगते हैं लोग; अभी कल ही जमाया था, फिर से जमाने लगते हैं। झाडू—पोंछ करने लगते हैं। कल ही की थी, फिर से करने लगते हैं। अखबार पुराना पड़ा है, उसी को पढ़ने लगते हैं; उसे पढ़
चुके हैं पहले ही। तुमने कभी खयाल किया? कुछ न कुछ करने लगते हैं! कुछ न हो तो कुछ खाने—पीने लगेंगे।
मैं यात्रा करता था वर्षों तक, तो मेरे साथ एक मित्र कभी—कभी यात्रा पर जाते थे। तो वे मुझसे बोले कि बड़ी अजीब बात है, घर ऐसी भूख नहीं लगती। ट्रेन में मेरे साथ कभी उनको तीस घंटे बैठना पड़ता। घर ऐसी भूख नहीं लगती, क्या मामला है? और घर तो काम में लगे रहते हैं और भूख नहीं लगती, और ट्रेन में तो सिर्फ बैठे हुए हैं। ट्रेन में अनेक लोगों को भूख लगती है। और अगर घर से कुछ कलेवा ले कर चले हैं फिर तो बड़ी बेचैनी हो जाती है। फिर तो कब खोलें..!
तो मैंने उनसे कहा कि इसका कारण. कारण कुल इतना है कि तुम खाली नहीं बैठ सकते। अब यह एक झाझेन हो गया, एक किया हो गई झेन की, कि बैठे ट्रेन में तीस घंटे तक, अब कुछ काम भी नहीं है। बाहर भी कब तक देखो, आंखें थक जाती हैं। अखबार भी कब तक पढ़ो, थोड़ी देर में चुक जाता है। तो कुछ खाओ, फिर से बिस्तर जमाओ, फिर से सूटकेस खोल कर देखो; जैसे कि किसी और का है! तुम्हीं जमा कर आए हो घर से। उसको व्यवस्थित कर लो!
मैंने देखा कि.. मैं देखता रहता कि क्या रहे हैं वे। फिर चले बाथरूम! क्यों? अभी तुम गये थे! न मालूम क्या मामला है? खिड़की खोलते, बंद करते!
आदमी को कुछ उलझन चाहिए। उलझा रहे, व्यस्त रहे तो ठीक मालूम पड़ता है। उलझा रहे, व्यस्त रहे तो पुरानी आदत के अनुकूल सब चलता रहता है। खाली छूट जाए, शून्य पकड़ने लगता है। वही शून्य ध्यान है। खाली छूट जाए, मोक्ष उतरने लगता है।
🌹🙏🌹ओशो ,
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