लगन महुरत झूठ सब
मैं जानता हूं एक जैन साधु को--गणेशवर्णी को--उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी दिगंबर जैनों में। प्रतिष्ठा का कारण कुछ और न था, छोटा-सा था, मगर उसी कारण प्रतिष्ठा होती। प्रतिष्ठा का कारण यह था कि वे थे तो पैदाइशी हिंदू और फिर उन्होंने हिंदू धर्म का त्याग कर दिया और जैन धर्म की दिगंबर शाखा में वे साधु हो गए।
जब कोई हिंदू जैन हो जाए तो जैनों की छाती फूल जाती है। जब कोई जैन हिंदू हो जाए तो हिंदुओं की छाती फूल जाती है। स्वभावतः, क्योंकि इससे सिद्ध हो गया कि जैन धर्म श्रेष्ठ है, नहीं तो क्यों गणेशवर्णी जैसा बुद्धिमान आदमी--बुद्धिमानी का केवल इतना ही सबूत दिया था उन्होंने जिंदगी में कि वे जैन हो गए थे और तो कोई सबूत दिया नहीं। मगर अब उनकी बुद्धिमानी की खूब चर्चा करनी पड़ेगी।
कोई हिंदू ईसाई हो जाए, उसको खूब सम्मान मिलता है। वह दो कौड़ी का हिंदू था, ईसाई होते ही से एकदम उसका मूल्य बढ़ जाता है--ईसाइयों में बढ़ जाता है। हिंदुओं में गिर जाता है। हिंदुओं में तो दुश्मन हो गया वह, पथ-भ्रष्ट हो गया, द्रोही सिद्ध हुआ, धर्मद्रोही।
एक ईसाई साधु हो गए--सरदार सुंदर सिंह। जब तक वे सरदार थे, किसी को पता ही नहीं था कि वे बड़े प्रतिभाशाली हैं। एक तो सरदार थे, तो किसको पता चले कि प्रतिभाशाली हैं। जब वे ईसाई हो गए तो सारी दुनिया में ईसाइयों ने उनकी दुंदुभी पीट दी कि वे महान प्रतिभाशाली हैं। ऐसा आदमी ही नहीं है। ये महात्मा बहुत पहुंचे हुए हैं। सिक्खों में उनका बहुत अपमान हो गया। सिक्खों में पहले अपमान भी नहीं था, सम्मान भी नहीं था--किसी को पता ही नहीं था कि सरदार जी में ऐसे गुण हैं।
मगर वह पता ही जब चला--दोनों बातों का पता एक साथ चला। जब सुंदर सिंह ईसाई हो गए तो ईसाइयों को पता चला कि इनमें महान प्रतिभा छिपी है। यह तो मसीहा की हैसियत के आदमी हैं। और सिक्खों को पता चला कि यह आदमी शैतान है। इसने धर्मद्रोह किया।
ईसाइयों ने उनकी जगत भर में प्रशंसा की। जगह-जगह उनका सम्मान हुआ। पोप ने उन्हें निमंत्रित किया; दूर-दूर देशों में उन्होंने यात्राएं कीं, बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में उनको मानद उपाधियां दी गईं कि हिंदुस्तान में ऐसा आदमी ही पैदा नहीं हुआ। यह है महात्मा असली! क्योंकि उन्होंने घोषणा कर दी कि जीसस के मुकाबले और कोई भी नहीं--न नानक, न कबीर, न बुद्ध, न महावीर, न कृष्ण--ये सब फीके पड़ गए हैं जीसस के सामने। बस, यही उनकी प्रतिभा थी।
मगर यहां सिक्खों की तो आग लग गई छाती में। अब सिक्ख कोई ऐसे तो नहीं कि चुप बैठ जाएं। सिक्ख और चुप बैठ जाएं। असंभव। जब सुंदर सिंह वापस आए तो उनका पता ही नहीं चला वे कहां गए। सिक्खों ने सुनते हैं खातमा ही कर दिया उनका। किसने किया, यह भी पता नहीं है, मगर सिक्खों ने ही किया होगा और किसी को क्या पड़ी थी! किसी ने निकाल ली होगी कृपाण, सत श्री अकाल और फैसला कर दिया होगा। गए थे हिमालय की यात्रा को सुंदर सिंह, फिर लौटे ही नहीं। कोई पंच प्यारे पहुंच गए होंगे, कि अब तेरे को बताए देते हैं तेरी प्रतिभा! तूने धर्मद्रोह किया।
यही हालत गणेशवर्णी की थी। हिंदुओं में तो उनका विरोध था। जाति के वे सुनार थे। और जिस गांव से वे आते थे, दमोह से, जब मैं दमोह गया तो लोगों ने कहा, अरे वह सुनट्टा! मैंने कहा, तुम सुनट्टा कहते हो! पागल हो गए हो? दिगंबर जैनों में उनसे ज्यादा प्रतिष्ठित कोई आदमी ही नहीं है अब। जो जन्मजात दिगंबर मुनि थे, वे उनसे सब पीछे पड़ गए। और वे मुनि भी नहीं थे अभी।
दिगंबरों में पांच सीढ़ियां होती हैं। ब्रह्मचर्य से शुरू होता है; साधु पहले ब्रह्मचारी होता है, फिर छुल्लक होता है, फिर ऐसे बढ़ते-बढ़ते अंत में मुनि होता है। धीरे-धीरे छोड़ता जाता है। ब्रह्मचारी एक चादर रखता है, दो लंगोट रखता है। फिर छुल्लक चादर छोड़ देता है, दो लंगोट रखता है। फिर एलक, एक ही लंगोट रखता है। ऐसे बढ़ते-बढ़ते फिर मुनि, नग्न हो जाता है, कुछ भी नहीं रखता।
दिगंबरत्व दीक्षा का अर्थ होता है: नग्न दीक्षा। दिगंबर यानी बस आकाश ही जिसके वस्त्र हैं। और दिगंबर होकर जो मरता है,वही मोक्ष जाता है। जब गणेशवर्णी मरे तो मरने तक वे छुल्लक ही थे। दिगंबरत्व की दीक्षा अभी उन्होंने नहीं ली थी। आकांक्षा तो थी, मगर हिम्मत नहीं जुटा पाए थे नग्न होने की। मरते वक्त, आखिरी क्षण में उन्होंने कहा कि जल्दी से मुझे दिगंबरत्व की दीक्षा दिलवा दो।
मर रहे हैं, चिकित्सकों ने कह दिया है कि बस, अब आखिरी घड़ी है। अब उन्होंने सोचा, अब आखिरी घड़ी क्या घबड़ाना? अरे, अब नंगा ही होना है, अब मरना ही है; तो घड़ी भर पहले ही नग्न हो जाओ। अगर नग्न होने से मोक्ष मिलना है तो यह अवसर चूकना ठीक नहीं। इतने सस्ते में मोक्ष मिलता हो तो चूकना ठीक है भी नहीं!
मरते वक्त जल्दी से मुनि को बुलाया गया--क्योंकि मुनि की दीक्षा मुनि ही दे सकता है। कोई दिगंबर मुनि ही मुनि की दीक्षा दे सकता है। जब तक दिगंबर मुनि को बुला कर लाया गया तब तक वे बेहोश हो गए थे। उन्होंने होश खो दिया था। मगर उनको बेहोशी में ही दिगंबरत्व की दीक्षा दे दी।
अब बेहोशी में तुम किसी को भी दिगंबरत्व की दीक्षा दे दो। अरे, लंगोटी ही थी, निकाल दी। वे बेहोश पड़े हैं, जंतर-मंतर पढ़ कर और लंगोटी अलग कर दी उनकी। और वे दिगंबर हो गए।
मोक्ष प्राप्त हो गया। और बस, जीवन भर की साधना पूर्ण हो गई। और वह आदमी बेहोश है, उसको पता ही नहीं कि दिगंबर हुआ कि नहीं! वे चाहे यही खयाल लेकर मरे हों, दुख में ही मरे हों, कि वह लंगोटी न छूटी सो न छूटी! उनको तो पता ही नहीं चलेगा।
अब तो तुम जिंदा को क्या मरे को ही दे दो। अरे, जब पता ही नहीं चलने का सवाल है, तो क्या फर्क पड़ता है। आदमी कोमा में है, बेहोश पड़ा है, कि मर गया--सांस से क्या लेना-देना है--तो हर एक मुर्दे को ही दिगंबरत्व की दीक्षा दे दो और मोक्ष पहुंचा दो।
-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-06
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